हरड़ खाने के फायदे और नुकसान (Harad khane ke fayde or nuksan)

चरक संहिता में सबसे पहले हरीतकी का वर्णन किया गया है। इसे हरड़ या हर्रे नाम से भी जाना जाता है। आयुर्वेद में हरीतकी को अत्यंत गुणकारी औषधि के रूप में वर्णित किया गया है। 

इस लेख में जानेंगे की हरीतकी क्या है?, हरीतकी के प्रकार, हरीतकी के फायदे और नुकसान (Haritaki ke fayde), हरीतकी का औषधीय इतिहास और हरीतकी की प्रजातियाँ और प्राप्ति क्षेत्र एवं उनकी विशषताएँ की- क्या है? 

हरड़ या हरीतकी क्या है? 

हरण का वृक्ष मूलतः निचले हिमालयी क्षेत्र में रावी तट से लेकर पूर्वी बंगाल, असम तक पांच हजार फीट की ऊंचाई वाले भागों में पाया जाता है। 

सामान्यतः 10 से 80 फीट ऊंचाई तक पाए जाने वाले इस वृक्ष की छाल गहरे भूरे रंग की होती है। इसके पत्ते ‘वासा’ (अडूसा) के पत्ते जैसे 7.20 सेमी. लंबे, 4 सेमी. तक चौड़े होते हैं। फूल छोटे, पीताभ, श्वेत, लंबी मंजरियों में होते हैं। फल 3-5 सेमी. लंबे अंडाकार होते हैं, इसके पृष्ठ भाग पर पांच रेखाएं होती हैं। 

कच्चे फल हरे होते हैं, जो पकने पर धूसर पीले रंग के होते हैं। प्रत्येक फल के मध्य में एक बीज होता है। इस बीज के ऊपर कठोर आवरण होता है, जिसे तोड़ने पर अंदर से मुलायम गिरी या मुलायम गूदा निकलता है। 

हरड़ के प्रकार 

बाज़ार में दो प्रकार की हरड़ बिकती है – छोटी और बड़ी। 

  • बड़ी हरड़ में पत्थर के समान सख्त गुठली होती है, जो छोटी में नहीं होती। 
  • वे फल जो पेड़ से गुठली बनने के पहले अपरिपक्व हालत में ही गिर जाते हैं या तोड़कर सुखा लिए जाते हैं, उन्हें छोटी हरण कहते हैं। पूर्ण परिपक्व हरण ही बडी हरड़ कहलाती है। 
  • रोगोपचार में छोटी हरड़ ही ज्यादा उपयोगी होती है। इसका प्रभाव सौम्य और शांत होता है, इसमें तेजी नहीं होती है। 
  • उत्पादन प्रक्रिया के अनुसार हरण के तीन भेद किए जा सकते हैं। पूर्ण विकसित परिपक्व फल या बड़ी हरण, अर्धपक्वे तथा बिना पके फल या छोटी हरड़। 
  • अगर हम हरड़ के फल को गुठली पड़ने से पहले ही तोड़ लेते हैं। तो इसी हरड़ (हरीतकी) को छोटी हरड़ कहा जाता है। यह स्याह पीले रंग की होती है।  
  • आधी पकी हरड़ का रंग पीला होता है और इसका गुदा काफी मोटा एवं कसैला होता है। 
  • पूरी तरह से पकी हुई हरड़ को ही बड़ी हरड़ कहते हैं।  

हरड़ खाने के फायदे और नुकसान (Harad khane ke fayde or nuksan)

नेत्र रोग में हरड़ के फायदे 

आज के युग में आँखों की समस्या साधारण है और बच्चों को भी चश्मा लग जाता है। लगातार कंप्यूटर पर काम करने या मोबाइल फ़ोन चलाने से भी आंखों में दर्द, जलन या आँखे लाल होने की समस्या रहती है। हरीतकी या हरड़ को रात को भिगो कर सुबह उसके जल से आँखे धोने से बहुत आराम मिलता है। 

त्रिफला के चूर्ण में भी हरीतकी का प्रयोग होता है इसलिए त्रिफला चूर्ण को रात को पानी में भिगो कर उसके जल से आँखें धोने से नेत्र विकार ख़त्म हो जाते है। इसलिए नेत्र विकार में त्रिफला का पानी से नेत्र धोना या रात में घी, शहद के साथ त्रिफला का सेवन करना चाहिए।  

कब्ज़ में हरड़ के फायदे 

कब्ज़ की समस्या से देने में हरीतकी बहुत फायदेमंद है। पेट से जुड़ी अनेकों व्याधियों में यह लाभदायक है। Asia Pacific Journal of Public Health (APJPH) ने एक सम्बंधित शोध में बताया है कि किस तरह कब्ज़ की समस्या में हरड़ का सेवन फायदेमंद हो सकता है (1)। 

इसलिए अगर आप लम्बे समय से कब्ज़ की समस्या से परेशान है तो हरीतकी का सेवन आपके लिए लाभदायक हो सकता है।  

इसके आलावा आप कब्ज़ की समस्या में त्रिफला चूर्ण का भी कर सकते है। सुबह -सुबह खाली पेट गुड़ या शहद के साथ त्रिफला चूर्ण का सेवन करने से कुछ ही दिनों में कब्ज़ की समस्या पूरी तरह से समाप्त हो जाएगी। कब्ज़ से छुटकारा पाने के लिए नियमित दिनचर्या सही होना भी आवश्यक है। 

अंडवृद्धि में हरड़ के फायदे 

पुरुषों में पाई जाने वाली अंडकोष वृद्धि (hydrocele) की समस्या में हरीतकी बहुत गुणकारी सिद्ध होती है। प्रातःकाल छोटी हरे चूर्ण गोमूत्र या एरंड तेल में मिलाकर दें या फिर दूध के साथ त्रिफला चूर्ण का सेवन करें। अधिक जानकारी के लिए किसी वैद्य या डॉक्टर से सलाह लें। 

जुलाब में हरड़ के फायदे 

छोटी हरीतकी के फल और डंठल रहित गुलाब की कली का समान मात्रा में चूर्ण बनाकर रात के समय पानी में भिगोकर तीन माशा दें। छह उत्तम हरे कूटकर आधा सेर पानी में अष्टामांश काढ़ा बनाकर छानकर पीएं। 

आंव (पेचिस / Dysentery) में हरड़ के फायदे 

आंव की बिमारी जिसे पेचिस (Dysentery) भी कहते है। इसके ईलाज में हरीतकी फायदेमंद साबित हो सकती है। हरीतकी, सोंठ और गुड़ की सामान मात्रा लेकर नीम का रस डालकर गोली बनाकर खिलाएं या दो-तीन हरीतकी (हरड़) गाय के दूध में घिसकर पिलाएं। 

त्वचा सम्बंधित समस्याओं में हरड़ के फायदे 

एन्टीबैक्टेरियल और एंटीफंगल गुणों से युक्त होने के कारण हरीतकी त्वचा से सम्बंधित अनेक रोगों के उपचार में भी सहायक है। 

इसके अतिरिक्त यह रक्तशोधक भी है जो रक्त से अशुद्धियाँ दूर करने में सहायक है।  इसमें त्वचा से सम्बंधित रोगों से लड़ने के लिए तीन मुख्य गुण शामिल है। इसीलिए इसे साफ़ी (Hamdard Safi Syrup) बनाने में प्रयोग किया जाता है। 

हरड़ के अन्य फायदे 

पित्तसेशरीरक्षीणहोनेपर :- 3-4 ग्राम हरे कूटकर रात के समय मट्ठे में भिगो दें, प्रातःकाल इस मट्ठे को पिलाएं, 3-4 सप्ताह रेचन होने पर घी-भात खिलाएं। 

अम्लपित्त :- एक भाग हरे, एक भाग द्राक्षा और दो भाग शक्कर की एक-एक तोला की गोली बनाएं। सुबह-शाम एक-एक गोली प्रयोग करें। 

पांडुरोगमें :- 3 माशा हरे चूर्ण, डेढ़-दो ग्राम शहद, तीन-चार ग्राम घी मिलाकर दें या 21 दिन गोमूत्र में रखकर नियमित एक-एक हरे दें। 

कफ, रक्तपित्त :- शूल अतिसार में – हरॆ का शहद के साथ सेवन लाभप्रद होता है। 

अजीर्ण :- छोटी हरे का सोंठ एवं समभाग गुड़ के साथ सेवन लाभप्रद होता है। 

शूल :- हरे चूर्ण तथा गुड़ मिलाकर सेवन करें। कॉस-श्वांस : हरे और बहेडा चूर्ण शहद के साथ देना चाहिए। 

हरड़ के नुकसान (Side Effects of Haritaki in Hindi) 

  • हरीतकी का प्रयोग औषधि के रुप में किया जाता है इसलिए इसका इस्तेमाल संतुलित मात्रा में ही किया जाना चाहिए। प्रयोग से पहले किसी वैद्य या चिकित्सक की सलाह लेना अधिक श्रेयष्कर होगा।  
  • हरीतकी का अधिक मात्रा में सेवन करने से दस्त लगने की समस्या उत्पन्न हो सकती है।  
  • कमजोर और थके हुए व्यक्तियों तथा गर्भवती स्त्रियों को इसका सेवन न करने की सलाह दी जाती है।  

इसके अतिरिक्त अधिक मात्रा में शराब पीने वाले या अधिक मैथुन करने वाले या गर्मी और भूख- प्यास से पीड़ित व्यक्तियों को इसका सेवन न करने की सलाह दी जाती है।

हरड़ का औषधीय इतिहास  

6-8 शताब्दी ई.पू. में रचित ‘चरक संहिता’ के अनुसार हरण कुष्ठ, गुल्म, उदावर्त, श्वास (यक्ष्मा), पांडु रोग, अर्श, ग्रहणी रोग, विषम ज्वर, हृदय रोग, शिरो रोग, अतिसार, अरुचि, कास, प्रमेह, प्लीहा वृद्धि आदि रोगों के इलाज़ में सहायक है। 

इसके अतिरिक्त नूतन उदर रोग, मुख से कफ का स्राव, स्वरभेद, शरीर की छाया में विकृति, कामला रोग, कृमि रोग, शोथ रोग, तमक श्वास, वमन रोग, नपुंसकता आदि सहित अनेक रोगों हृदय तथा शरीर में भारीपन, स्मरण शक्ति और बुद्धि का व्यामोह दर करने में सक्षम है – (च.सं.चि. 129-34)। 

चरक के अनुसार यह दोषों का अनुलोमन करती है तथा दीपन और पाचन करने वाली है। इसके निरंतर सेवन से आयु सुखपूर्वक व्यतीत होती है। 

यह पुष्टिकारक है, अर्थात हरीतकी सेवी पुरुष रोग के भय से रहित, सुखी, स्वास्थ्य संपन्न एवं धन्य होता है। यह उत्तम व्यवस्थापक है। अनुपादन भेद से यह सभी रोगों को शांत करने वाली है। बुद्धि एवं इंद्रियों को बल देने वाली है। 

चौथी-पांचवीं शताब्दी ई.पू. में रचित सुश्रुत संहिता में इसे व्रण के लिए हितकारी, उष्ण, विरेचक, मेदनाशक, शोथ, कुष्टनाशक, कशाय, अग्निदीपक तथा नेत्रों के लिए हितकारी बताया गया है (सु.सं. 2.11)। 

सोलहवीं शताब्दी के चर्चित आयुर्वेदिक ग्रंथ भावप्रकाश के अनुसार हरीतकी धारणशक्ति (मेधा) के लिए हितकारी. पचने में मधर और रसायन है। 

यह वृद्धावस्था में होने वाले रोगों को दूर करने वाली, तरुणाई को लंबे समय तक बनाए रखने वाली, वार्धक्य के प्रभाव को नियंत्रित करने वाली, नेत्रों के लिए हितकर, स्वर भेद, ग्रहणी रोग, विबंध, विषम ज्वर, गुल्म, उदर रसायन तथा वमन, हिचकी, खुजली, हृदय रोग, कामला, शूल, प्लीहा, यकृत, अश्मरी, मूत्रकृच्छ एवं मूत्राघात को दूर करती है (भाव प्र. 19-22)। 

भावप्रकाश के अनुसार, विंध्य क्षेत्र में पाई जाने वाली हरण ‘विजया’ सभी रोगों में, सिंधु क्षेत्र की ‘रोहिनी’ व्रण पूरण के रूप में, ‘पूतना’ प्रलेप हेतु, ‘अमृता’ शोधन हेतु, ‘अभया’ आंख के रोगों में तथा ‘जीवंती’ हरण संपूर्ण रोगों में विशेष लाभकारी है। कोई-कोई हरण तो छुने, सूंघने एवं स्पर्श मात्र से ही मल का भेदन कर देती है। 

 पांचवीं शताब्दी में भारत भ्रमण पर आए चीनी यात्री एवं चिकित्सक ‘इत्सिंग’ ने लिखा है – ‘भारत में लगभग सभी घरों में एक विशेष औषधि का प्रयोग होता है, जो सभी रोगों से बचाव करती है। यहां तक कि उपवास में भी कमजोरी एवं भूख, प्यास की कमी पूरी करती है। यह गोली हरे, काली मिर्च, सोंठ एवं पीपर तथा शहद से तैयार की जाती है।’ 

हरीतकी या हरड़ की प्रजातियां, प्राप्ति क्षेत्र एवं विशेषताएं 

प्रजातियां 

आयुर्वेद के अनुसार हरीतकी की सात प्रजातियां होती हैं। चेतकी (हिमालय), विजया (सिंधु), चंपा, अमृता, अभया, सोरठा एवं जीवंती। 

चेतकी (हिमालय), 

विजया (सिंधु), 

चंपा, 

अमृता, 

अभया,

सोरठा, 

जीवंती 

प्राप्ति क्षेत्र एवं विशेषताएं 

  • हिमालय क्षेत्र में पाई जाने वाली चेतकी हरड़  सौम्य तथा विंध्य क्षेत्र की आग्नेय गुणों से युक्त होती हैं, इसकी दो प्रजातियां मिलती हैं। 
  • काली-सफेद विजया हरड़ तुंबी की तरह गोल होती है तथा मख्य रूप से विंध्य क्षेत्र में पैदा होती है। 
  • रोहिणी साधारण गोल होती है तथा सिंधु क्षेत्र में उत्पन्न होती है। 
  • चंपा हरड़ की गुठली बड़ी और छाल पतली होती है। 
  • अमृता प्रजाति के हरण की गुठली छोटी और छाल मोटी होती है। 
  • अभया प्रजाति के हरण के फल के ऊपर उभरी हुई रेखाएं होती हैं। 
  • जीवंती हरड़ का रंग सोने की तरह पीला होता है। 

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